Wednesday, November 21, 2018

क़िताब (A book)

मैं, उसी मेज़ पे , खुला औंधा पड़ा हूँ
जहाँ तुमने, आज सुबह चाय पी थी

मुझे लगा, लंच पे शायद,
फिर तुम उठा के पढ़ोगी 
या, शाम की चाय पे फिर,
दो-चार पन्ने, और पलटोगी 

या रात, बिस्तर पे लेटे लेटे,
अपने जानो पे रख लोगी
और कुछ नहीं तो,
किसी पन्ने का, एक कोना मोड़ कर
अपनी तकिया के नीचे रख लोगी

तुम फिर पास से गुजरी हो
दिन भी, कुछ और बाकि है
तुम सुनो तो कहूं , तुम्हारे कप में
एक घूंट चाय, और बाकि है









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