Wednesday, November 21, 2018

क़िताब (A book)

मैं, उसी मेज़ पे , खुला औंधा पड़ा हूँ
जहाँ तुमने, आज सुबह चाय पी थी

मुझे लगा, लंच पे शायद,
फिर तुम उठा के पढ़ोगी 
या, शाम की चाय पे फिर,
दो-चार पन्ने, और पलटोगी 

या रात, बिस्तर पे लेटे लेटे,
अपने जानो पे रख लोगी
और कुछ नहीं तो,
किसी पन्ने का, एक कोना मोड़ कर
अपनी तकिया के नीचे रख लोगी

तुम फिर पास से गुजरी हो
दिन भी, कुछ और बाकि है
तुम सुनो तो कहूं , तुम्हारे कप में
एक घूंट चाय, और बाकि है









Sunday, November 14, 2010

On my wife's birthday

तेरे होने से है गुलज़ार जिंदगी मेरी,
नर्म है वक़्त का मिजाज़ भी नरमी से तेरी,
रौशन है खुर्शीद मेरा, लौ से तेरी,
तेरा ही उजाला है रातों में मेरी,

अब तलक उधार ही जिया था मै,
तुने लौटाया है मुझको, मेरी जिंदगी का गुलाब,
मेरी हमनफस और क्या दूँ तुझे मै सौगात,
दे दूँ न गर तुझे मै अपनी जिंदगी का गुलाब


Wednesday, June 02, 2010

Invitation

For Nandini - A poem requested by the poetry of my life.....

दो ऊदी ऊदी सी रूहें,
एक ही खुशबू मे महक रही है,
जिंदगी के सख्त जाड़ों के,
गुनगुने सूरज थाप रही है,
सुबह से शाम के बंध खोले है,
नए उजालों के चराग जला रही है,
वही है कदीम अफसाने वही है,
नए किरदारों के नए मोड़ ढाल रही है,
एक हुई है चौखट दो घरों की,
दो घरों की खुशबू बदल रही है,
दो ऊदी ऊदी सी रूहें,
एक ही खुशबू में महक रही है .....

Sunday, May 09, 2010

The fire

कुछ नज़मे ऐसी होती है जो किसी भूमिका की मोहताज़ नहीं होती । जो नादीदा (absent) होते हुए भी अपने पास होने का एहसास बनाये रखती है । किसी किसी जिंदगी में ऐसा होता है की वही नज़म इंसानी सांचे में ढली , धड़कती हुई गर्म जिस्म में, आपसे किसी मोड़ पे आ टकराती है । मै खुश किस्मत हूँ ये नज़म मुझे उसी एक मोड़ पे मिली अपनी किसी परछाई की तरह ।

मै एक रोज़ घर की देहरी से इक आग उठा के चला था,
वो आग जब पैरों से बाँधी तो , दुनियां के रास्ते खुले, अपना रास्ता बनाया,
वो आग माथे से लगाईं तो, एक मुठी आसमान की राख मेरी राख से मिल गयी,
उस आग से दिल की लावें जलाली जब, सूरज आया था उन लवों की तपीश मांगने,

वही आग, किसी ने आज हाथ छूकर, मेरी रूह में फूँक दी,
उसी आग से, फिर मेरी सुबह का आफ़ताब जिला (to vivify) दिया ।

Saturday, January 23, 2010

The Silence

Today after a long time I spoke to my dear friend Gulzar. Once, we were roommates in Pune and besides sharing a fistful of space we also shared and lived our passions together. He is a great thinker too. While talking about many things, he mentioned to me that the greatest thing a person can share with another person is the silence. This thought of his sparked many feelings in me and stirred many memories. For example, I remembered an instance narrated by Amrata Preetam (a Poet and a great story writer) in one of her books. She describes one evening with Sahir Ludhiyanvi when they just spent few silent moments together without speaking a word. Ever since I read it, this scene got itched in my mind for good, for one that it has profound poetic value in it.
Power of speech is one of the five senses that we humans are blessed with. To me, I think this sense of speech is also endowed with the sense of silence. When speech is not enough in communicating ourselves the silence speaks for us and communicates better than thousands of spoken words. Such is the power of silence that it can channel the warmth from one heart to another or the chilled coldness. As the saying goes "Mind your tongue" on the same token one should mind our silences too.

O Well,I am overwhelmed with many thoughts and might go on with my rantings, The important thing is that the following poem (Nazam) was due for long, it has been lingering in my mind since ages. Thanks much to you Gulzar for sharing your thought that finally the poem ripened and I could smell it. Enjoy everybody.....
BTW: Did I mention that this poem is from a bachelor to all the non-bachelors :)

आओ की ,
आज हम अपना शोर , खिड़की से बाहर फ़ेंक दे,
और बैठे कुछ देर साथ , घर की खामोशियाँ सुने,

अकेले में , तन्हाईयाँ बहुत सुनी है मगर,
तुम्हारे साथ तनहा, वही तन्हाईयाँ सुने,

कहीं खो गयी है , तेरी मेरी आहटें घर में,
वही आहटें ढूंढे अपनी, उनकी सरगोशियाँ सुने,

हर आदमी में रहता है , एक गूंगा सूनापन,
उसी तेरे मेरे सूनेपन की बोलियाँ सुने,

आओ की फ़ेंक दे उतार कर अपना अपना जिस्म,
रखें सामने अपनी रूह, रूह की खामोशियाँ सुने,



Monday, January 18, 2010

First poem written in 2010

The following poem is inspired by a poem written by Gulzar Saab. His poem "Anjal" which appeared in his poetry collection "Pukhraj", is about a girl who calls him up on one midnight and pleads him to write a poem on her and to name it "Anjal". In the poem Gulzar Saab say's that he learnt later that the girl died of cancer and she use to love his poems.

Such is the nature of poems that it even gave some one relieve from the pains of cancer. Its only the matter of feelings and sensitivities and only if you could feel.....

This poem "Anjal" made me wish to be on the receiving side of the call and so here is my experiment of blending a fiction/wish with reality....

Written on January 06, 2010 at 8:25 PM

फिर, दिनभर एक भारी से,
दिल का बोझ लिये फिरता हूँ मै,
जब अक्सर एक आवाज,
दिल गाढ़ा कर जाती है -
"तुम कुछ लिखते क्यों नहीं,
मुझ पर ही इक नज़म लिख दो न"

हर ख्याल सांसों मे,
महका महका सा लगता है ,
हर एक हर्फ़, तेरे लबों की आंच मे,
तपा तपा सा लगता है ,
कोई, ज़िन्दगी का कोरा सफहा भी,
तेरी तरह ही, सुना सुना सा लगता है,

तू शायद वो नज़म है, जो मैंने अब तक कही नहीं,
मै तुझसे अब भी हामला हूँ, तू अब तक जन्मी नहीं




Two Couplets

While tending to my apartment over the long weekend, I found a piece of paper, in which once I had written two couplets. Here are these two couplets, its easier to manage a blog then a piece of paper.....

Written on Oct 22, 2009 at 7:35 PM.

फिर एक और दिन हुआ तमाम,
रह गयी हसरतें कुछ हसरत - ए - नाकाम

फिर "अमित" राह पे ना आ सके हम,
फिर दिनभर के सफ़र में हो गयी शाम

ख्वाब

some times in May 2009 I have written this poem. I am producing it on my blog just to get rid of the itchiness for writing... still chasing that complete thought and for those blessed words .... in the mean time enjoy this poetry....

सोचता हूँ, कोई खवाब तो नहीं,

जब तस्सवुर मे आया होगा,
जागती आंखे सहम गयी होंगी,
पलकों से ना संभाला गया होगा,
हसरत भी देख कांप गयी होगी

कोई कच्चा ज़ख़्म होगा,
ज़िन्दगी ने अभी ,
हांथों से छुआ ना होगा,
दर्द ने भी आंख खोली ना होगी,
वक़त ने अभी, जिसे छुआ ना होगा

यू दूर से , ना ये जिंदा खवाब दिखलाओ,
फिर, इन जागी आँखों को,
वही अपना तसवुर लौटा दो,
और, पुकार लो नाम मेरा,
फिर मुझको जगा दो,

सोचता हूँ, कोई ख्वाब होगा,
सोचता हूँ, कोई ख्वाब तो नहीं



Saturday, October 03, 2009

One couplet written long back....

Today I remembered one of my couplets and thought to blog it ..... its better than nothing......

जो हो सुखन तो हो की दिल की बात निकले,
जुबां तक आए बात मेरी उनके मुह से निकले