Sunday, May 24, 2009

नगमे - 2

इस ग़ज़ल को कहने में बहुत मश्शकत करनी पड़ी। लगभग दो हफ्ते लग गए थे लिखने में। बहुत सोचा कोई सिरा ख्याल का हाथ नही लगा । आप को तो पता ही होगा, खामोशियाँ बहुत बोलती है, एक दिन बेठे बेठे इन्ही को सुन रहा था, इनका मिजाज देख रहा था, की एक शेर झन्नाके गिरा जमीं पर। मैंने फौरन उसे जमी से उठाया, उसकी धूल झाडी, मुह पौछा और जेब में रख लिया। अकेला शेर कभी कभी अपने आप में मुकम्मल होता है , शर्त ये है की वो फॅमिली वाला न हो। मैंने देखा ये अकेला शेर, चहरे से फॅमिली वाला लगता था, गमभीर, जिम्मेदार, थोडी तोंद निकली हुई, दाढ़ी - मुछे साफ, था मगर लापता। जल्द ही इसके जोडीदार न ढूंढे तो ये मेरा घर में रहना हराम कर देगा। थोड़ा वक्त लगा, आख़िर इसके जोडीदार मिल ही गए| ग़ज़ल अर्ज़ करता हों ....

तेरी खुशबु गिरी है आँखों में ,
जिंदगी कांप उठी है आँखों में।

कुछ तो कहो की ये खामोशियाँ,
रात भर गूंजती है आँखों में।

देर तक शाम वो पहलू में बेठे रहे,
देर तलक होती रही अज़ान आँखों में।

न जगाओ मुझे की वो आँखे भी,
एक पल को लगी है आँखों में।

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