Wednesday, May 27, 2009
एक कच्ची नज़म
पिछले कुछ दिनों से एक मिसरा अटका हुआ था जहन में। आज ऑफिस से घर लौटते वक़त उसका बुखार तेज हो गया। कुछ देर बस में बेठे बेठे उसकी आंच में बदन तपता रहा। जाने कब बैग से एक कागज निकाला और मवाद सा में कागज पे बहने लगा।
ट्रेन और बस, बदलने और पकड़ने में मूड जाता रहा। बुखार अब भी उतरा नही, जखम अबभी पुरी तरह फुटा नही। अबभी इस नज़म का एक हिस्सा मेरे अन्दर अटका हुआ है अपेंडिक्स की तरह। ख्याल ऊँघने लगे है जहन में, हर तस्सवुर थका हुआ है। कच्ची है ये नज़म, लगता है कच्ची ही रहेगी।
अब भाई, अपना ही ब्लॉग है , कच्ची या पक्की जैसी भी हो सोचा ब्लॉग कर देते है।
कोई नज़म,
सदियों से रूह के गीत गाती रही,
देह का अमृत जगाती रही,
मिट्टी से मिट्टी के दर्द चुगती रही,
लम्हों से इन्सां की राख झडाती रही,
आदमी का उजाला, है लौ आदमी की,
सुबह उगी फलक पे, जो रत भर जलती रही,
इन्सां के ग़म में ढली, दर्द में दुखती रही,
साथ आदमी के, मर मर के जीती रही,
अमर कर दिया, देवो को अमृत पीलाती रही,
इन्सां के सिने में आग, जन्नत की छुपाती रही।
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